आंबेडकर की जयंती पर साथ साथ सियासी मंच पर दिखेंगे नीतीश और पासवान - nitish and ramvilas paswan may dent opposition on dalit politics

पटना : संविधान निर्माता बाबा साहब भीमराव आंबेडकर की जयंती पर बिहार ही नहीं, पूरे हिंदी भाषी क्षेत्र में एक नए सियासी अध्याय की शुरुआत होने जा रहा है. वर्षों बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और केंद्रीय खाद्य आपूर्ति मंत्री रामविलास पासवान किसी सियासी मंच पर साथ-साथ दिखेंगे. नीतीश और पासवान के साथ-साथ उनकी पार्टी के नेता भी लगातार इस बात का जिक्र कर रहे हैं कि 14 अप्रैल का कार्यक्रम ऐतिहासिक होगा.

एससी-एसटी एक्ट में संशोधन के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद देश में दलित राजनीति ने जोर पकड़ लिया है. कोर्ट के निर्णय में भागीदारी ना होने के बावजूद विपक्ष लगातार सरकार को निशाना बना रहा है. इसका साफ मतलब है कि विपक्ष 2019 में दलित राजनीति के भरोसे ही बीजेपी नीत एनडीए को घेरने की कोशिश कर रहा है. बीजेपी ने भी अपने सभी दलित सांसदों से जनता के बीच जाकर आरक्षण के मुद्दे पर सरकार की मंशा से लोगों को रूबरू कराने का निर्देश दिया है. बीजेपी के स्थापना दिवस के मौके पर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने अपने संबोधन में भी कहा था कि मोदी सरकार की ना तो मंशा है आरक्षण हटाने की और ना ही वह किसी को ऐसा करने देगी.

रविवार को पटना में नीतीश कुमार के साथ लगभग डेढ़ घंटे की मुलाकात के बाद रामविलास पासवान ने इस बात को भी साफ कर दिया कि हम सभी एनडीए का हिस्सा हैं और आगे भी रहेंगे. लोजपा सुप्रीमो ने कहा कि हमारी कोशिश होगी कि 2014 की स्थिति फिर से देश में बने और एनडीए की जीत हो. ऐसे में सवाल उठता है कि एनडीए के अंदर नीतीश और पासवान की गुटबंदी के सियासी मायने क्या हैं?



इसे समझने से पहले कुछ पीछे जाते हुए एनडीए के अंदर उठे असंतोष पर भी ध्यान देना जरूरी है. वाजपेयी सरकार में तकरीबन दो दर्जन पार्टियों के समर्थन के बावजूद एनडीए के सहयोगी खुद को मजबूत समझते थे वहीं, मोदी सरकार में अपनी हिस्सेदारी साबित करने में भी असमर्थ दिख रहे हैं. टीडीपी का गठबंधन छोड़ना हो या फिर समान विचारधारा रखने वाली शिवसेना का 2019 में अलग चुनाव लड़ने का निर्णय, मोदी सरकार में एनडीए के साथी दल अपनी जगह बनाने के लिए लगातर जूझते नजर आ रहे हैं.

एनडीए के घटक दलों के नेता भी ऑफ रिकॉर्ड लगातार इस बात का जिक्र करते हैं कि वाजपेयी सरकार वाली बात इस गठबंधन में नहीं है. इसके पीछे बीजेपी का मजबूत होना प्रमुख कारण हो सकता है. 1999 में वाजपेयी को कई दलों के साथ मिलकर सरकार बनानी पड़ी थी, जबकि 2014 में बीजेपी अकेले बहुमत में आई. ऐसे में एनडीए के अंदर नीतीश और रामविलास की जुगलबंदी भी 2019 में अपनी स्थिति मजबूत करने की दिशा में एक पहल है.



अब बात करते हैं ओबीसी और दलित राजनीति की. आज बीजेपी को अपने सहयोगी दलों के ऐसे चेहरों की जरूरत है जो इसकी राजनीति के लिए जाने जाते हों. चाहे वह बिहार में ओबीसी और ईबीसी की राजनीति करने वाले नीतीश कुमार हों, जिन्होंने अपने कार्यकाल में कई जातियों को जोड़कर 'महादलित' का गठन किया. या फिर अपने शुरुआती दौर से ही राज्य में दलितों का नेतृत्व करते आ रहे रामविलास पासवान हों. हिंदी भाषी क्षेत्र में आरक्षण के मुद्दे पर सरकार का पक्ष रखने के लिए इनकी जोड़ी  कारगर सिद्ध होगी. एनडीए की रणनीति से विपक्ष के प्रयासों को 2019 में झटका लग सकता है.
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