नई
दिल्ली: कहने को कैराना शिवालिक की तराई में बसा पश्चिमी उत्तर प्रदेश का
एक छोटा सा ऊंघता हुआ कस्बा है. रमजान के पाक महीने में 42 डिग्री पर तपता
सूरज यहां भी रोजेदारों के ईमान का इम्तिहान ले रहा है. आम के बगीचों में
छोटी-छोटी अमियां इतराती डालियों को झुकना सिखा रही हैं, ताकि वे जमीन के
करीब पहुंच सकें. पुराने व्यस्त बाजार में शाम होते-होते फलों की दुकानों
पर अच्छी खासी भीड़ उमड़ती है, आखिर रोजा तो इन्हीं रसदार फलों से टूटना
है.
लेकिन ढर्रे पर चलती इस जिंदगी के बीच आम के बगीचों से भीड़ भरे बाजार तक
सबको पता है कि भारतीय संगीत को किराना घराना की सौगात देने वाले अब्दुल
करीम खां साहब के शहर में चुनाव की नई किस्म की रणभेरी बज रही है. वैसे तो
यह एक मामूली सा चुनाव है, जो यहां के सांसद रहे हुकुम सिंह के निधन के बाद
जरूरी हो गया था. और भारतीय राजनीति की रवायत के मुताबिक उनकी बेटी
मृगांका यहां से चुनाव मैदान में हैं. लेकिन जितना यहां के लोगों को पता
है, उससे कहीं ज्यादा बाहर की दुनिया को पता है कि यह लोकसभा उपचुनाव भारत
की राजनीति में कितना बड़ा असर डालने वाला है.
हो सकता है इसका असर 1978 के चिकमंगलूर लोकसभा उपचुनाव जैसा हो, जिसने
इमरजेंसी के बाद सत्ता से बाहर हुईं इंदिरा गांधी को विजय तिलक लगाकर सत्ता
में उनकी वापसी का रास्ता खोला था. हो सकता है इसका असर 1988 में इलाहाबाद
के उपचुनाव में वीपी सिंह की जीत के साथ शक्तिशाली कांग्रेस के स्थायी
पराभव की शुरुआत जैसा हो. यह असर कैसा होगा यह 28 मई की वोटिंग के बाद साफ
हो जाएगा, लेकिन शामली जिले की तीन और सहारनपुर जिले की दो विधानसभाओं को
मिलाकर बने कैराना लोकसभा सीट में जमीन पर कैसी बिसात बिछी है, यह अभी ही
जाना जा सकता है-
जहां जाट, वहां जीत
जो भी हो कैराना है तो यूपी में ही. ऐसे में कोई भी सियासी बात शुरू करने
से पहले यहां के धार्मिक और जातीय ढांचे को परखना जरूरी है. 16 लाख वोटरों
वाले कैराना में लोगों की जुबान पर जो जातिगत समीकरण चढ़ा हुआ है उसके
मुताबिक यहां 5 लाख से अधिक मुस्लिम वोटर हैं. दलित वोटरों की संख्या दो
लाख से अधिक है, इसमें भी बड़ी संख्या जाटव वोटरों की है. यहां की
प्रभावशाली जाट जाति के वोट सवा लाख के आसपास हैं. दूसरी प्रभावशाली जाति
गुर्जर के भी सवा लाख के करीब वोट हैं. अन्य पिछड़ी जातियों के करीब 3 लाख
वोट हैं. इसके अलावा अगड़ों के वोट तो हैं ही.
अब जरा इन जातियों का झुकाव देखें तो अगड़ी जातियां, अति पिछड़ी जातियां और
गुर्जर पूरी तरह से बीजेपी के साथ लामबंद दिखाई देते हैं. गुर्जरों की
लामबंदी की मुख्य वजह यह है कि बीजेपी प्रत्याशी मृगांका गुर्जर समुदाय से
आती हैं. शाक्य, सैनी, प्रजापति आदि अति पिछड़ी जातियां बीजेपी के साथ
पुरजोर तरीके से खड़ी हैं.
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लोकसभा उपचुनाव : कितनों की किस्मत का फैसला करेगा कैराना- lok-sabha-by-election-kairana
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